हीरे की शक्ल
हीरे
की शक्ल मैं आए हो,
पत्थर
की ज़ुबान क्यों बोलते हो I
अपने
निशां मिट्टी मैं खोकर,
मिट्टी
से क्यों तौलते हो I I
जो
आराम गाह से दूर हुए,
वो
घिसे और कोह-ए-नूर हुए I
जो
थक कर चूर-चूर हुए,
वो
ही तो मशहूर हुए I I
खंजर
भी नहीं बनता खंजर,
जब
तक वो म्यान के हो अंदर I
ज्यों
खाक जहां की छान चुका,
सरताज
बना था सिकंदर I I
सुरूर-ए-नज़र
तुम चढ़ जाओगे,
शहँशाह
फिर कहलाओगे I
ख्वाबों
की फिर कब्र नहीं,
उनके
तुम महल बनाओगे I I
शक्ल
जो हीरे की हो लाए,
फिर
पत्थर से न बोलोगे I
अपनी
मंज़िल तक आकर,
सुकून
मैं खुदी के हो लोगे I I
रचयिता :
आशुतोष
‘अनिल’ विश्नोई
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