Tuesday 2 April 2013

हीरे की शक्ल


हीरे की शक्ल

हीरे की शक्ल मैं आए हो,
पत्थर की ज़ुबान क्यों बोलते हो I
अपने निशां मिट्टी मैं खोकर,
मिट्टी से क्यों तौलते हो I I

जो आराम गाह से दूर हुए,
वो घिसे और कोह-ए-नूर हुए I
जो थक कर चूर-चूर हुए,
वो ही तो मशहूर हुए I I

खंजर भी नहीं बनता खंजर,
जब तक वो म्यान के हो अंदर I
ज्यों खाक जहां की छान चुका,
सरताज बना था सिकंदर I I

सुरूर-ए-नज़र तुम चढ़ जाओगे,
शहँशाह फिर कहलाओगे I
ख्वाबों की फिर कब्र नहीं,
उनके तुम महल बनाओगे I I

शक्ल जो हीरे की हो लाए,
फिर पत्थर से न बोलोगे I
अपनी मंज़िल तक आकर,
सुकून मैं खुदी के हो लोगे I I

रचयिता :
आशुतोष अनिल विश्नोई

No comments:

Post a Comment