MAN OF MISTAKES - "Dharmil"
Thursday 22 June 2017
Thursday 4 May 2017
Thursday 5 January 2017
Thursday 4 April 2013
“कर्तव्यों के उपरांत अधिकार”
“कर्तव्यों के उपरांत अधिकार”
जिजीविषा
और महत्वाकांक्षा से परिपूर्ण सामाजिक परिपाटी के परकोटे मैं आस, प्यास और विश्वास पनपते हैं I अधिकारवाचक कारक का
सृजन इन्ही तीन मूल मानसिक अवस्थाओं की देन है I अधिक विवेचना हेतु इन अवस्थाओं के प्रचलित रूप आस अर्थात तमोगुण, प्यास
अर्थात रजोगुण एवं विश्वास अर्थात सतोगुण के सापेक्ष चिंतन वांछित है I
संस्कारों
का जीवनकाल मैं क्रम निश्चित है जहां सामाजिक व्यवस्था मैं साम्य हेतु संस्कारों
एवं नियमनों का परिष्कृत निकाय युगों की विचारधारा से सृजित हुआ है वहीं मनीषियों की विशिष्ट सारगर्भित सूक्तियों ने
विचारशीलता को गतिमान रखा है I
पूर्वनिर्मित
निकाय के विरुद्ध जब पथभ्रष्ठ इकाई कुचेष्टा करती है तब असंतुलन की स्थिति उत्पन्न
होती है I इस आस, प्यास और विश्वास के
विकल्प युक्त चुनाव की दुविधा मैं जब मनुष्य संस्कारों से समझौते की अक्षम्य भूल
कर बैठता है तब समस्त मानसिक अवस्थाएँ आपके ही द्वारा खड़ी की गईं समस्याओं द्वारा
आप का घेराव कर लेती हैं I
कर्तव्य
और अधिकार जीवन मैं अतिमहत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं एवं क्रमबद्ध पालन द्वारा ही
पालनकर्ताओं की साख निर्धारित होती हैं I दोनों एक दूसरे
के पूरक हैं एवं परस्पर घनिष्ठ संबंधों मैं गुथे है I कर्तव्य
के पूर्व अधिकार कदाचित उचित नहीं हैं, अधिकारोपरांत
प्रतिक्रिया और पीड़ितों के कोपभाजन द्वारा विचारों को सशक्त समर्थन प्राप्त है I
साधारणत:
कर्तव्यों का अर्थ नियमित दिनचर्या मैं आने वाली जिम्मेदारियों से है I हमारे समाज एवं परिवार के प्रति कर्तव्यों से है जिनके निर्वाह एवं
परिपालन हेतु ही हमें पारिवारिक एवं सामाजिक जिम्मेदारियों ने चुना है I
सदैव जो
विचार सहायता करता है वह है “हम सभी के लिए और सभी हमारे लिए” I
अधिकार
सदैव भविष्यलक्षीय कर्तव्यों पर निर्भर करते हैं और “कर्तव्यों के उपरांत अधिकार” विचार का सृजन होता है, जो सर्वसम्मति से सर्वसाधारण मैं सर्वस्वीकार्य है I
विचार
वैयक्तिक एवं दृष्टि सीमा मैं रखे गए हैं और प्रयोगिक परीक्षणोपरांत ही आप के
समक्ष प्रस्तुत हैं I
आप
भी “कर्तव्यों के उपरांत अधिकार” विचार
पर चिंतन एवं सुधार हेतु प्रतिक्रिया देकर
सहयोग करें I
लेखक: आशुतोष 'अनिल' विश्नोई
लेखक: आशुतोष 'अनिल' विश्नोई
Tuesday 2 April 2013
हीरे की शक्ल
हीरे की शक्ल
हीरे
की शक्ल मैं आए हो,
पत्थर
की ज़ुबान क्यों बोलते हो I
अपने
निशां मिट्टी मैं खोकर,
मिट्टी
से क्यों तौलते हो I I
जो
आराम गाह से दूर हुए,
वो
घिसे और कोह-ए-नूर हुए I
जो
थक कर चूर-चूर हुए,
वो
ही तो मशहूर हुए I I
खंजर
भी नहीं बनता खंजर,
जब
तक वो म्यान के हो अंदर I
ज्यों
खाक जहां की छान चुका,
सरताज
बना था सिकंदर I I
सुरूर-ए-नज़र
तुम चढ़ जाओगे,
शहँशाह
फिर कहलाओगे I
ख्वाबों
की फिर कब्र नहीं,
उनके
तुम महल बनाओगे I I
शक्ल
जो हीरे की हो लाए,
फिर
पत्थर से न बोलोगे I
अपनी
मंज़िल तक आकर,
सुकून
मैं खुदी के हो लोगे I I
रचयिता :
आशुतोष
‘अनिल’ विश्नोई
Monday 1 April 2013
पत्थर की आत्मकथा
पत्थर की आत्मकथा
मैं
हसीन वादियों मे पहाड़ों का पत्थर
था I सोचता था इससे अच्छी दुनियाँ नहीं होगी, नज़ारे नहीं होंगे , बहारें नहीं
होंगी , सूरज नहीं होगा , बारिश नहीं होगी , वो धुन्ध नहीं होगा , कलरव नहीं होगा I
फिर
एक दिन हवा और बारिश के थपेड़ों ने मेरी ज़मीं हिला दी , मैं समय की धारा मैं बह गया
I धारा और शहस्त्रधाराओं से मिलकर विशाल होती चली गयी I
मैं
सतह और तल पर गोते लगाता आह्लादित , प्रसन्नचित्त अवाक हो प्रकृति के नियमन मैं
बिंध रहा था I मानसिक साम्यवाद विद्रोही हो टकरा रहा था और स्वावलंबी अस्तित्व की
आधारशिला पर अनुभवों का घरौंदा पनप रहा था I
तल
पर जमे हुए पुराने पत्थरों ने मुझे राह मैं रोकने के अनेकानेक असफल प्रयास किए और किंकर्तव्यविमूढ़ मेरी टकराहट
उपरांत प्रतिक्रिया और अग्रगामी सोच पर नतमस्तक हो
मार्गावरोध से च्युत हो गए I
उन हसीन
वादियों का टूटा पत्थर थपेड़ों मैं स्वरूप प्राप्त कर रहा था I प्रकृति किसी हुनरमंद नक्काश के मानिंद मुझे तराश रही थी I सतत गिरना और उठ कर आगे बढ़ जाना रोज़मर्रा का नियम बन गया था I जुझारूपन नस – नस मैं दोगुनी रफ्तार से दौड़ रहा था I
कभी –कभी दुविधा और असमंजस चरम सीमा पर होते थे I कहीं तो
धारा का स्वरूप समाप्त-सा आकाश मैं लीन होता प्रतीत होता ,
पर मैं मस्त-मौला वहाँ धार पर झरना पाता और खुशी –खुशी
चरमोत्कर्ष से छलांग लगा देता I
सहस्त्रधाराओं
से बहता हुआ समय की धार को चीरता हुआ मैं ईश्वरीप्रदत्त प्रारब्ध की ओर अग्रसर था I धारा अब शीतल-चरित्र , मंथर हो गयी थी , वह ढलानों से मैदानों मैं जो आ गयी थी I नक्काश की
नक्काशी भी पूर्ण हो गयी थी , मेरा वृत्तीय-निर्माण
पूर्ण हो चुका था I
मैं हर
दौर , हर अवरोध से गुज़र चुका था और जीवनी मैं
संतुष्टि के निकट था I कि एक दिन मुझे एक पुजारी ने पहचान
लिया और मेरे लक्ष्य मोक्ष-द्वार पर ला कर खड़ा कर दिया I मुझे
शिव ने स्वीकार्य आलिंगन कर लिया था I मैं शिव मैं आत्मसात
हो चुका था और सत्यम शिवम सुंदरम कि अमर सूक्ति शब्दश: चरितार्थ हो गयी थी I
यह आत्मकथा थी उस पहाड़ के पत्थर की जिसने पहाड़ के
बाद जीवन का अंत, कभी सोचा था I
महत्वाकांक्षा
का चरित्र भी सहज है पहचानते ही पहचानकर्ता का प्रारब्ध सफल कर देती है I उसे वह देती है, जिसे ढूंढनेवाले मंज़िल कहते हैं I
महत्वाकांक्षी
बनें , स्वयं को पहचानें I
लेखक :
आशुतोष
‘अनिल’ विश्नोई
मेरी कहानी
मेरी कहानी
किसी ने सही कहा है “प्यारे ये सपनों का शहर है मुंबई”I मैं यहाँ नया हूँ
पर इस शहर को जहां तक समझा हूँ वो इतना की यहाँ हर मन मैं एक अजेय सपना पलता है और
हर मुंबईकर अपना पूरा जुनून उसे पूरा करने मैं लगा देता है I
आज
जो ईंट-गारे का अपने मैं एक पूर्ण निकाय-रूपी-संसार हम यहाँ पाते हैं वह
विश्वकर्मावाद का भौतिकीकरण प्रतीत होता है I
पूर्वजों के सपनों को सँजोये हुए अपनी विरासती सोच को आगे बढ़ाती
पीढ़ियाँ यहाँ जुनून की हर हद पार कर रहीं हैं I यहाँ पर हर मन मैं एक राजा है जो सृजनात्मकता की चरम चोटी तक प्रजा का भला
चाहता है I
कई सिकंदरों से मैं मिल चुका हूँ और उनमें से एक बनने का स्वप्न
खुली आँख से देखता हूँ, और मैं इसे
पूर्ण भी करूंगा यह खुद से खुदी का वादा है I
बचपन मे मैं बहुत जिज्ञासु था माँ-पिताजी से दिन-भर सवाल करता था
और वो, हर बार हँस कर जवाब देते रहते थे, खुश होते थे की हमारा गुणज अच्छा है I मैं बड़ा हुआ
और एक गाना जो ज़ुबान पर चढ़ा वो था “पापा कहते हैं बड़ा नाम
करेगा, बेटा हमारा ऐसा काम करेगा ..........”I
बाड़ी की बस्ती जो बारना परियोजना के तहत कुछ साठ-सत्तर के दशक
मैं बसी थी, उस बस्ती से निकलकर आज विश्व के
दूसरे सबसे बड़े शहर तक का सफर हो चुका है, आज भी पापा कह रहे
हैं, और शायद उस छोटी बस्ती का लड़का बड़ा नाम कर रहा है I
एक बात जो बड़े-बड़े लोगों के बारे मैं सोचता था की ये लोग क्या एक
दूसरे को जानते हैं जो मिलते ही हाथ मिलाते हैं, गले लगते हैं, मित्रवत वो सब करते हैं जो लंगोटिया
यारों के काम होते हैं I
पर आज शायद वह सब दुनियादारी समझ मैं आने लगी है, कि एक मुक़ाम पर सभी राजा एक सा सोचते हैं, प्रजा का भला I
बड़े
से बड़ा राजा बिना योग्यता के अपना ताज नहीं बचा पाया I राजा के गुण पैतृक नहीं हैं वरना आज हम
किसी प्राचीन विरासत का हिस्सा होते I और आशा है कि सामयिक
समाजशास्त्री शायद मेरी हाँ मैं अपनी भी हाँ देखते I
गोद, झूले, तीन पहियों कि गाड़ी से सफ़र एक सौ चौबालीस पहियों की “लोकल” (शहरी-रेलगाड़ी) पर दौड़ रहा है I युधिष्ठिर ने यक्ष प्रश्न का उत्तर भी सटीक दिया था कि सबसे तेज़ है मन, इसे बाँधना जितेंद्रिय के लिए भी दुष्कर है I
जितना जिजीविषा और उमंग मुझे सीखा पायी है, वह है कि, इस
राज्यवाद की माया मैं दो दशकों का ही संघर्ष है तदुपरांत माया का आलिंगन आप को
परिलक्षित उद्देश्य मैं संविलित कर देता है I आस-पास जिसने
भी मील के पत्थर गाड़े हैं, अवधि कि पुष्टि करते हैं I
...............................................................................................................................................ज़ारी
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