पत्थर की आत्मकथा
मैं
हसीन वादियों मे पहाड़ों का पत्थर
था I सोचता था इससे अच्छी दुनियाँ नहीं होगी, नज़ारे नहीं होंगे , बहारें नहीं
होंगी , सूरज नहीं होगा , बारिश नहीं होगी , वो धुन्ध नहीं होगा , कलरव नहीं होगा I
फिर
एक दिन हवा और बारिश के थपेड़ों ने मेरी ज़मीं हिला दी , मैं समय की धारा मैं बह गया
I धारा और शहस्त्रधाराओं से मिलकर विशाल होती चली गयी I
मैं
सतह और तल पर गोते लगाता आह्लादित , प्रसन्नचित्त अवाक हो प्रकृति के नियमन मैं
बिंध रहा था I मानसिक साम्यवाद विद्रोही हो टकरा रहा था और स्वावलंबी अस्तित्व की
आधारशिला पर अनुभवों का घरौंदा पनप रहा था I
तल
पर जमे हुए पुराने पत्थरों ने मुझे राह मैं रोकने के अनेकानेक असफल प्रयास किए और किंकर्तव्यविमूढ़ मेरी टकराहट
उपरांत प्रतिक्रिया और अग्रगामी सोच पर नतमस्तक हो
मार्गावरोध से च्युत हो गए I
उन हसीन
वादियों का टूटा पत्थर थपेड़ों मैं स्वरूप प्राप्त कर रहा था I प्रकृति किसी हुनरमंद नक्काश के मानिंद मुझे तराश रही थी I सतत गिरना और उठ कर आगे बढ़ जाना रोज़मर्रा का नियम बन गया था I जुझारूपन नस – नस मैं दोगुनी रफ्तार से दौड़ रहा था I
कभी –कभी दुविधा और असमंजस चरम सीमा पर होते थे I कहीं तो
धारा का स्वरूप समाप्त-सा आकाश मैं लीन होता प्रतीत होता ,
पर मैं मस्त-मौला वहाँ धार पर झरना पाता और खुशी –खुशी
चरमोत्कर्ष से छलांग लगा देता I
सहस्त्रधाराओं
से बहता हुआ समय की धार को चीरता हुआ मैं ईश्वरीप्रदत्त प्रारब्ध की ओर अग्रसर था I धारा अब शीतल-चरित्र , मंथर हो गयी थी , वह ढलानों से मैदानों मैं जो आ गयी थी I नक्काश की
नक्काशी भी पूर्ण हो गयी थी , मेरा वृत्तीय-निर्माण
पूर्ण हो चुका था I
मैं हर
दौर , हर अवरोध से गुज़र चुका था और जीवनी मैं
संतुष्टि के निकट था I कि एक दिन मुझे एक पुजारी ने पहचान
लिया और मेरे लक्ष्य मोक्ष-द्वार पर ला कर खड़ा कर दिया I मुझे
शिव ने स्वीकार्य आलिंगन कर लिया था I मैं शिव मैं आत्मसात
हो चुका था और सत्यम शिवम सुंदरम कि अमर सूक्ति शब्दश: चरितार्थ हो गयी थी I
यह आत्मकथा थी उस पहाड़ के पत्थर की जिसने पहाड़ के
बाद जीवन का अंत, कभी सोचा था I
महत्वाकांक्षा
का चरित्र भी सहज है पहचानते ही पहचानकर्ता का प्रारब्ध सफल कर देती है I उसे वह देती है, जिसे ढूंढनेवाले मंज़िल कहते हैं I
महत्वाकांक्षी
बनें , स्वयं को पहचानें I
लेखक :
आशुतोष
‘अनिल’ विश्नोई
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